Monday 30 July 2018

भाई, तुम नहीं समझ पाओगे

अपने माँ बाप को दिन प्रतिदिन
बूढ़े होते देखना
कितना तकलीफदेह होता है, ये अहसास
भाई, तुम नहीं समझ पाओगे

करते हो तुम रोज, फोन कई कई बार
 सुलझाते हो उनकी हर कठिनाई
हाँ, तुम आते हो
महीने दो महीने बाद
रहते हो ४-६ दिन
 संवारते हो उनके सब काम
पर मैं तो मिलती हूँ ना  नित
देखती हूँ, उनके शरीर का
आहिस्ता आहिस्ता क्षीण होना
चुप रहने पर भी,
 उनके होंठों का अजब तरह से कांपना
एक हाथ पीछे रख कर
दुसरे हाथ से छड़ी पकड़
आधा झुक कर चलना
उनके हाथों पैरों का कम्पन
जो हर दिन बढ़ता जाता है
कितना तकलीफदेह है
 ये सब नित देखना
भाई, तुम नहीं समझ पाओगे

माना वो अपनी परेशानी मुझसे छिपाते हैं
और तुम्हे बताते हैं
पर आँखें जो मेरी देखती हैं
उसको मैं झुठला नहीं पाती
कितना दुखद है ये अहसास
भाई, तुम नहीं समझ पाओगे

Thursday 26 July 2018

स्मार्टफोन


एक घर
हम दो
हमारे दो स्मार्टफोन

वो ( पतिदेव) यू ट्यूब देखते हैं
इयर फ़ोन लगा कर

मैं पढ़ती हूँ कविता और कहानियां
फेसबुक पर जा कर 

मेड ने कहाँ पोछा लगाया
कहाँ नहीं

कूक ने दाल को ठीक से
पकाया या नहीं

बेटे -बहु का
फोन आया कि नहीं

छोटा टाइम से घर पहुंचा
या नहीं

अब हमको कोई भी चिंता
सताती नहीं

क्यूँ कि वो भी बिजी
और मैं भी बिजी

हम दो
हमारे दो स्मार्टफोन
नो नॉइज़ पॉलूशन


Saturday 21 July 2018

दोस्त

 देर रात, अधखुली आँखे
चारों ओर पसरी तन्हाई
तभी दिल के इक  कोने से
बुझी हुई राख  के ढेर से
 वर्षों बाद
खट्टी मीठी  यादों की
इक चिंगारी सुलग आयी
कैसे पुकारूँ अब उसे
चलो दोस्त ही कह देती हूँ
चली गयी थी बिना कुछ बताये
फिर दोबारा नजर भी तो न आयी
अनबन हुई थी हम दोनों में
मैं उस से चिढ़ सी गयी थी
अब याद नहीं, क्या बात थी
चटोरी हूँ ना
इस लिए याद है मुझे
मेथी और बेसन की भाजी
टिफिन में ख़ास मेरे लिए थी लाती
रिक्शे पर मैं, साईकिल पर वो
साथ साथ कॉलेज जाना
उसका रास्ते भर बतियाना
नहीं जानती अब कहाँ होगी वो
पूछने थे उससे
अनगिनत अनबूझे सवाल
जिन्हे मैं सुलझा नहीं पायी
रोई और बहुत पछतायी
अब,अब और मैं उलझना नहीं चाहती
ऐ यादों, जाओ दफ़न हो जाओ
दिल के उसी कोने में
बुझी राख के ढेर के नीचे
हमेशा, हमेशा के लिए  

Thursday 19 July 2018

यादों का संसार

हम सब की प्यारी बुआ
कुछ वर्षों से हुई तन्हा
सुबह शाम सत्संग में बिताती
अपने सम्बन्धियों से भी मिलती मिलाती
         बच्चे उनके हैं विदेश में
         रच बस गए वो  सब वहां
         फ़िक्र उनको थी बहुत अपनी माँ की
         बोले, माँ सामान पुराना  सब dispose कर दो
         आ जाओ आप हमेशा के लिए यहाँ
इक दिन बुआ बोली मुझसे
कुछ रुआंसी सी, आँखे भर आयी थी
बच्चो के लिए ये सामान पुराना है
मेरे लिए सारा जहाँ है
इसमें है तेरे  अंकल की यादें समायी
इस गिलास से उनको जूस पिलाती थी
ये कंबल, मैं उनको ओढ़ाती थी
सब साड़ियाँ उन्होंने चाव से खरीदी थी
ये शाल भी मुझे गिफ्ट दी थी
        पर बच्चों के आगे वो झुक गयी
        आज वो विदेश में रह रही
        अब भी उनको चिंता सताती वहां
         छोड़ गयी जिस संसार को वो यहाँ
यही हाल मेरी माता श्री का भी है
पीतल और कांसे के ढेर बर्तन
 उनके दहेज़ के, सहेज कर हैं रखे
मैं बोली, लाइए इनको बेच दूँ
अब हैं ये किस काम के
माँ बोली, मेरे बाद इनका
चाहे कुछ भी करना
अभी इनको ऐसे ही रहने दो
        ये देख अब समझ आ गया
        सामान होता नहीं कोई पुराना
        बसा होता है उसमे,किसी की
        यादो का संसार यहाँ
 
     

 

     



       

Wednesday 18 July 2018

आँखों की चमक

बचपन और अल्हड़ जवानी
 की,वो उन्मुक्त हंसी
आँखों में एक चमक सी ला देती थी
कुछ दिन पूर्व, हमने पतिदेव से कहा
हमारी आँखे कुछ बुझी बुझी, उदास सी क्यूँ हैं
"तुमने आँखों का ऑपरेशन जो है कराया"
ऐसा कह, उन्होंने बात को हवा  में उड़ाया
 नहीं समझ सकता कोई, मेरे मन की व्यथा
मकड़ी जैसे अपने ही बुने और सँवारे
घरोंदे  में उलझ सी गयी हूँ
मेरा  व्यक्तित्व, कहीं खो गया
चेहरे  पर फीकी सी हंसी दे गया

Tuesday 3 July 2018

एक रूप दो रंग

जीवन की उथल पुथल, कैसे  सह रहा हूँ             
भीतर से हूँ मै  तनहा, न किसी से कह रहा हूँ   
जीता है जग हमेशा, न कभी मैं हारा               
चाहता नहीं हूँ कोई, कहे मुझे बेचारा               


 जीवन की उथल पुथल, कैसे सह रही  हूँ
भीतर से हूँ मैं  तनहा, न किसी से कह रही  हूँ 
 जीता है जग हमेशा, न कभी मैं हारी
चाहती  नहीं हूँ कोई,कहे मुझे बेचारी


Monday 2 July 2018

सतगुरु सहारा तेरा

कर्मो का लेखा जोखा, कोई आ मुझे  बताये
  ये ज्ञान है या विज्ञानं, मुझे समझ में न आये
कुछ अपनों का है ये कहना, भुगत रही हूँ मैं जो,
पिछले जन्मों का प्रतिफल है
किया क्या था उन जन्मो में मैंने,ये कोई तो गिनाये
ये जानने के लिए इधर उधर भटकू
 लायक नहीं है इसके, लिए शरीर मेरा

 सतगुरु तू कहाँ है, मुझे इक तेरा सहारा
तूने  मुझको थोड़ा सा, था जो सिखाया
वो ही राम बाण मेरा, वो ही मेरा सहारा
 इन कठिनाइयों में, इक तू ही मुझे बचाये
मुझे इक सहारा तेरा, सतगुरु सहारा तेरा  

उस वक़्त क्यों न बोली

जिंदगी में मेरी भी , कई बार हुआ ऐसा
किसी अपने ने कुछ कहा,मैं  जार जार रो ली
ये मन तब  मेरा,मुझे बार बार कचोटे
उस वक़्त क्यों न बोली, तू उस वक़्त क्यों न बोली
( डॉ ज्योत्स्ना मिश्रा जी की कविता से प्रेरित )

Sunday 1 July 2018

वो

वल्लाह क्या उम्र आयी गजब
इसके क्या है कहने
वो चाहता है ये
 कि उसके बारे में
माँ से ज्यादा, दोस्त जाने 

बहुत दिनों बाद, आयी कान्हा तेरी याद

अपनी शरीर की परेशानियों में झूल रही हूँ ऐसे,
लग रहा है कान्हा तुमको भूल गयी हूँ जैसे,
साथ था तेरा जब , चारों ओर ख़ुशी थी
लगता है अब मुझे, चुभ रहे हों शूल जैसे
अपने और अपने वालों के मोह में, फंस गयी हूँ ऐसे
आटा देख कर कांटे में फंसी , मछली  तड़पे जैसे
कान्हा, ओ कान्हा, मुझे आकर तुम बचाना
मेरे  अंतर्मन में फिर से, अपना मंदिर बनाना
कान्हा  तू जल्दी आना, तड़प रही हूँ मै
मेरी गोदी में खेलना, मुझे अपना मुख दिखाना 
ओ कान्हा जल्दी आना, ओ कान्हा जल्दी आना