Saturday 25 August 2018

रक्षा बंधन

आज राखी के दिन बैठी
कुछ तनहा सी
मन बहुत पीछे चला गया
1964  में शायद ,मेरा छोटा भाई
 नया नया स्कूल जाने लगा था
कई बार किसी बात पर रोते रोते
मेरी कक्षा में आकर
 मुझसे चिपक कर बैठ जाता
फिर उसे समझा बुझा कर
उसकी कक्षा में भेजा जाता
 1968 की बातें याद कर
मैं खुद ही अकेले मुस्कराने लगी
मेरा सबसे छोटा भाई
जो तब नर्सरी में था
कक्षा में नेकर गन्दी कर, रोने लगता
आया से साफ़ नहीं कराता
 फिर मुझे वहां बुलाया जाता

आज दोनों भाई हैं इंजीनियर
दोनों ही बहुत बड़े ओहदों पर
दोनों का अपना भरा पूरा परिवार
पर मेरी निगाहें आज भी उनमे
अपने उन्ही भाइयों को ढूंढ़ती है
जो मुझसे  लड़ते झगड़ते  थे
पर मेरे  बिना इक पल भी
रह नहीं पाते थे
अब तो रब से दुआ है बस
वो जहाँ रहे ,खुश रहे

Sunday 19 August 2018

कुछ कही कुछ बतकही

सखी री
कुछ समझ नहीं आता
ससुराल भी क्या चीज होती है
ये अपनी होती है
या अपनी नहीं होती
सास ससुर के लिए उनका पुत्र
सीधा और भोला होता है
बहु मायके से सब सीख कर आती है
इसी से चतुर, चालाक होती है
अगर दोनो से कोई गलती हो जाए
बेटा  छूट जाता है
बहु और बहु के माँ बाप को
पानी पी पी कर कोसा जाता है
पर इसी बहु ने गर बेटा जन  दिया
उसका हर खून माफ़ हो जाता है
सखी री
कुछ समझ नहीं आता
ससुराल भी क्या चीज होती है

Wednesday 15 August 2018

आजादी

इतने सालों बाद भी
धर्म और मजहब के नाम पर
होती  गन्दी राजनीति
जब नित नए बलात्कार के किस्से
आपका दिल दहलाये
ऐसे में बोलो
हम क्या आजादी मनाये

Saturday 11 August 2018

घुट घुट कर जीना ही नियति है









घुट घुट कर जीना ही नियति है
लड़की हूँ  ना इसलिए


खिड़कियां खोल नहीं सकती
अगर खिड़की खोल बैठी तो
सौ सौ प्रश्न उठते
क्यों  बैठी
 क्या देख रही हो
 किसी का इंतजार है क्या
कैसे कहूँ
कि  देखना चाहती हूँ
उड़ते हुए पाखी को
छूना  चाहती हूँ मैं भी
हाथ निकाल
 बारिश की बूंदो को
महसूस करना चाहती हूँ
सावन की बूंदो से उठी
तप्त धरती की सौंधी सी महक को
व्यक्त कर नहीं सकती
भावनाएं अपनी

खुल के हंस बोल नहीं सकती
अपने घर में भी हंसी
तो डांटा जाता
शऊर नहीं है क्या
लड़की हो,आवाज धीरे रखा करो
तुम्हे पराये घर जाना है

जहाँ जायी, वहां परायी
जहाँ ब्याही , वहां भी कहलायी परायी
वहां पर्दा ,यहाँ घूंघट

कहने को तो कहा जाता
हमे प्यारी बहुत है
अपनी बेटियां और बहुएं
मगर  बोली जहाँ खुल कर
उद्दंडता हो गयी
उसकी सजा फिर लम्बे समय तक भुगती
इसी लिए पी गयी सब अंदर ही अंदर
लड़की हूँ न सिर्फ इसलिए



माना  कि आज का समाज पहले  से बहुत जागरूक हो चुका  है, फिर भी कहीं कहीं आपको लड़कियों की यही स्थिति देखने को मिलेगी |
चित्र गूगल साभार 

Tuesday 7 August 2018

कब तक मैं ऐसे जीती रहूँ

इक युद्ध सा छिड़ा मन में
इक उहा पोह की स्थिति है
घुटती  रहूँ या उगल दूँ सब
कब तक मैं ऐसे जीती रहूँ
विचारों का शोर मचा
बाहर  का शोर मुझे भाता नहीं
ये दीगर है, ऐसे में
अंदर भी तो कुछ जाता नहीं
अपनी व्यथा मैं किस से कहूँ
कब तक मैं ऐसे जीती रहूँ