घुट घुट कर जीना ही नियति है
लड़की हूँ ना इसलिए
खिड़कियां खोल नहीं सकती
अगर खिड़की खोल बैठी तो
सौ सौ प्रश्न उठते
क्यों बैठी
क्या देख रही हो
किसी का इंतजार है क्या
कैसे कहूँ
कि देखना चाहती हूँ
उड़ते हुए पाखी को
छूना चाहती हूँ मैं भी
हाथ निकाल
बारिश की बूंदो को
महसूस करना चाहती हूँ
सावन की बूंदो से उठी
तप्त धरती की सौंधी सी महक को
व्यक्त कर नहीं सकती
भावनाएं अपनी
खुल के हंस बोल नहीं सकती
अपने घर में भी हंसी
तो डांटा जाता
शऊर नहीं है क्या
लड़की हो,आवाज धीरे रखा करो
तुम्हे पराये घर जाना है
जहाँ जायी, वहां परायी
जहाँ ब्याही , वहां भी कहलायी परायी
वहां पर्दा ,यहाँ घूंघट
कहने को तो कहा जाता
हमे प्यारी बहुत है
अपनी बेटियां और बहुएं
मगर बोली जहाँ खुल कर
उद्दंडता हो गयी
उसकी सजा फिर लम्बे समय तक भुगती
इसी लिए पी गयी सब अंदर ही अंदर
लड़की हूँ न सिर्फ इसलिए
माना कि आज का समाज पहले से बहुत जागरूक हो चुका है, फिर भी कहीं कहीं आपको लड़कियों की यही स्थिति देखने को मिलेगी |
चित्र गूगल साभार
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