Sunday, 29 September 2013

बादल

 हाय रब्बा देखो आसमां के
 बादल मुझे चिड़ा रहे हैं
 सैंया का रूप धर के 
 दूर भागे जा रहे हैं 

जब मैं जया जी से मिली थी


आप माने या ना माने
मैं कभी जया भादुरी जी से मिली थी
तब मैं 9th कक्षा मे पढ़ती थी
जया जी की " गुड्डी" फिल्म ही रीलीज़ हुई थी
सन् 1971 मे दिसंबर का महीना था
वो अपनी ममेरी बहन की शादी मे लखनऊ आई थी
उनकी बहन हमारे पड़ोस मे रहती थी
शादी मे मैं ना जा सकी थी
मेरे हाफ ईयर्ली पेपर्स चल रहे थे
शादी के दूसरे दिन पेपर के बाद
मैं और मेरी सहेली अपनी अपनी मम्मियों के साथ
अमीनाबाद मे गंगा प्रसाद धरमशाला पहुंचे
जहां एक रात पहले शादी का आयोजन था
नीचे ही उनके पिता तरुण भादुरी जी से मिलना हुआ
उन्होने हमे उपर एक कमरे मे बिठाया
वहां बिछे थे गद्दे ,हम नीचे ही बैठ गये
तभी सफेद साड़ी पहने जया जी
अपने लम्बे लम्बे खुले बालों को
हाथ से लपेटते हुए जूडा बनाती हुई आई
और हमारे पास ही नीचे बैठ गयी
रिश्तेदार उन्हे कुसुम बुला कर छेड़ रहे थे
गुड्डी फिल्म की नायिका का नाम कुसुम जो था
वो नाराजगी दिखाते हुए मुस्करा रही थी
इतनी प्रसिध अदाकारा को सामने पाकर
हम कुछ झिझकी और चुप ही रहीं
जया जी बोली,गुड्डी फिल्म देखी है क्या ?
हमने कहा नहीं,पेपर्स के बाद देखेंगे
वो बोली ,नीचे पार्क मे भीड़ क्यूं है
मैने बताया नीचे झंडे वाले पार्क मे
चौधरी चरण सिंह जी आ रहे हैं
तब हमने उनसे औटोग्राफ लिये
वो हंसी ,कुछ दिन बाद ये औटोग्राफ
कूड़े की टोकरी मे तो नहीं फेंके जायेंगे
हमने कहा, नहीं नहीं ऐसा होगा नहीं
फिर हमने उनसे ली विदा
उनके पिता जी ने हमसे कहा
आप किसी और को जया के
आने के बारे मे ना बताये
नहीं तो भीड़ हो जायेगी

हम खुशी खुशी घर आये
अगले दिन ये किस्सा सब सहेलियों को बताया
कुछ ने माना ,कुछ ने मजाक मे उड़ाया

आज सोचती हूँ,कि जया जी इतनी बड़ी सेलेब्रिटी हैं
रोज कई लोगों से मिलती होंगी
उन्हे हमारा मिलना क्या याद होगा
पर इतना तो याद ही होगा
सन् 1971 के दिसम्बर महीने मे
वो अपनी कज़िन कि शादी मे लखनऊ गयी थी 

Friday, 27 September 2013

सबक

फुरसत के किन्ही लम्हों मे
करने लगी बीते दिनों को याद मैं 
वो बच्चों का साथ, वो घूमना फिरना 
वो पिकनिक मनाना, वो लुत्फ उठाना
अचानक वो लोग भी याद आ गये 
जिनके साथ हम मिल जुल कर मौज मनाते थे 
जो अब इस दुनिया से ले चुके विदा 
दिल मेरा दुखी हो गया 
अपने मन को मैने वहां से हटाया
और अपने भविष्य पर टिकाया 
पर ये क्या भविष्य का सोचते ही
 भगवान कृष्ण का विराट रूप याद आ गया 
ऐसा लग रहा था जैसे सारे नाते रिश्तेदार 
एक एक कर उनके मुंह मे समा रहे हैं 
घबरा गयी मैं, मेरा सिर चकराने लगा 
मैने अपना ध्यान वहां से भी हटाया 

और अपने वर्तमान पर टिकाया 
ये क्या,वर्तमान की सोचते ही 
मुझे अपना शरीर याद आया 
जो इस समय बीमारियों और दर्दों से घिरा है 
मैं बैचैन हो उठी
राम राम और गायत्री मंत्र जपने लगी 
धीरे धीरे हल्का हुआ मेरा दिलोदिमाग
मैं हुई शांत 

फुरसत के लम्हों ने 
उम्र के इस पड़ाव पर
ये सिखाया सबक 
केवल ईश्वर ही वो हस्ती है 
जिसके नाम मे मस्ती है  

Monday, 23 September 2013

पग


संभल संभल पग धरियो
खंडे की धार है जिंदगी
इधर सम्भालो ऐसे
कि उधर गिरने का डर न हो 

Sunday, 22 September 2013

फुर्सत

जब गृहस्थी नयी थी
तोह फुर्सत नहीं थी
अब बच्चे बाहर हैं
खुश हैं, व्यस्त हैं
यारा हम अपनी
 फुर्सत में मस्त हैं

Saturday, 21 September 2013

तिनका तिनका

तुम्हारे जाने के  बाद सनम
मेरी जिंदगी तिनका तिनका हुई
 इधर संभालती हूँ तो
उधर बिखर  जाती है
उधर बटोरती हूँ तो
इधर फ़ैल जाती है
इसे समेटने की तमाम
 कोशिशें यूं ही हवा हुई 

Friday, 20 September 2013

मानसून

फिजा में उठी महक
आसमां में छाई कालिमा
मौसम हुआ खुशनुमा
फुआरों  ने कहा बाय बाय
मानसून ने ली विदा


Monday, 16 September 2013

प्यारी सी बच्ची

इक रात ख्वाब  में देखा मैंने
प्यारी सी बच्ची गुलाबी  फ्राक में
मेरे कान में फुसफुसाई
बोली, माँ तेरी दुनिया में बच्चियों के साथ
 जो अत्याचार हो रहा है
मुझे उससे लगता है डर
मैं नहीं आना चाहती वहां
मैंने कहा, तुझे डरने की जरूरत नहीं
तू दुर्गा, काली  रूप में आ
इन महिषासुरों और रक्तबीजों को मिटा
या अपनी व्येक्तिक पहचान लिए आ
हम कोशिश करेंगे
 इस समाज की सोच को बदलने की
तू आ बेटी आ ,बिलकुल न घबरा
आ, आ करते ही मेरी नींद खुल गयी
करने लगी विचार मैं
2 -4 जालिमों को फांसी देने से
 बच्चियों के साथ होता
अत्याचार नहीं रुकेगा
 उन्हें खुद को जालिमों
से बचाने के लिए समर्थ बनाना होगा
समाज की सोच बदलनी होगी
 बच्चियों का साथ निभाना होगा

Sunday, 15 September 2013

आधुनिकता

 महानगरों की नित नयी
  ऊँची  उठती इमारतों को देखकर
मेरा  दिल जाता है घबरा
 २० वी ,२२ वी  मंजिलों पर
 एसी लगे बंद कमरों में
रहने वालों  बच्चों का
 बचपन क्या  होगा
बच्चे टी  वी, इन्टरनेट
 की देख देख रंगीनियाँ
बचपन को पीछे छोड़ ,
जल्दी हो जायेंगे जवां
कहाँ वो तितली पकड़ना
अमिया और कच्चे पके अमरुद तोड़ कर खाना
 जामुन तोडना और बटोरना,
 कहाँ गन्ना चूसना
कहाँ क्यारियों से गिलहरी भगाना

आजकल के बच्चों को चाहिए ब्रांडेड कपड़े
और ब्रांडेड पिज़्ज़ा और बर्गर
साथ पेप्सी या कोला भी जरूरी है
दूध पीना  तो बच्चों की  मजबूरी है

आधुनिकता के नाम पर हम
 अपने बच्चों को क्या परोस रहे हैं
प्रकृति से उनका नाता ही तोड़ रहे हैं
उनके बचपन  को पीछे, बहुत पीछे छोड़ रहे हैं 

Friday, 13 September 2013

गृहणी का लेखन

मेरी इन सीधी  सादी पंक्तियों में
एक लेखिका का लेखन नहीं पाइयेगा
ये तो एक गृहणी के विभिन्न मूड ,
कुछ खट्टे मीठे अनुभव हैं जिन्दगी के
इसमें साहित्य का सार नहीं पाइयेगा 

पीपल का पेड़

घर के पिछवाड़े के आँगन में
 एक पीपल का बड़ा पेड़ था
चैत की पूर्णिमा थी
 चारों ओर चांदनी खिली थी
 मै रात को टहल रही थी
 मेरी नजर पीपल पर पड़ी
 पीपल  नए लाली लिए
 हरे कोमल पत्तों से सजा था
 मंद हवा बह रही थी
बहुत सुंदर नजारा था
ऐसा लग रहा था जैसे
 पेड़ ने ओढनी ओढ़ रखी है
 उस ओढ़नी  में लाली लिए
हरे  सितारे रुपहली चांदनी में
जैसे झिलमिला रहे हैं
मैं मुग्ध नयनों से
 देखती वहीँ बैठ गयी
देखते देखते मेरी आँख लग गयी
मैं  जान ही न पाई
कब रात ढल गयी 

Wednesday, 11 September 2013

रात

 रात बदलती जाती है,
 रोशन सवेरे में,
 ये सिलसिला है जिंदगी का,
 मन रे, मत डर अँधेरे में  

Tuesday, 10 September 2013

पाती

डबडबाई आँखों से, लिखी जो  तुम्हे पाती
खुद ही बार बार पढ़ कर, आंसुओं से  भिगो   दी
 भेजती कहाँ ,कुछ अता  पता न था तुम्हारा मालूम
 संभालती तो दुनिया को क्या बताती
किसको लिखी , क्यों लिखी ये  पाती
होती बदनामी गर, तुम बिन कैसे सह पाती   

Sunday, 8 September 2013

साथ

हम से तेरा  साथ क्या छूटा
जैसे सारा जहाँ छूट  गया
कहते हैं शायद इसी  को बेबसी
जिन्दा हैं, पर दिल हमारा टूट गया 

Friday, 6 September 2013

भूल गए

मेरे उनींदे से नयन
पलक  झपकाना भूल गए
खिलखिलाते थे अधर मेरे
मुस्कराना भूल गए
यारों मेरे मरने की खबर
उन्हें जरूर देना
कहना मैं उसी शहर में थी
जहाँ वो मुझे छोड़ कर भूल गए 

Wednesday, 4 September 2013

खुले आसमां

खुले आसमां तले  जब सोती थी
संग तारों की बारात होती  थी
अब ए सी में सोती हूँ
बंद कमरे में तन्हा होती हूँ 

Monday, 2 September 2013

gracefully accept

मोंगरे के फूलों का गजरा
जब मैं बालों  में  लगाती थी 
 अपने  घुंघराले  काले बालों  को देखकर 
खुद ही मोहित हो जाती थी 

अब बालों में चांदनी खिली  है 
 हिना  और डाई  से भी छिप  नहीं पाती है 
बढ़ती हुई  उम्र को  कैसे gracefully accept करूं 
मुझे समझ  नहीं आती है 

हर अंग प्रत्यंग के अपने ही  लटके झटके हैं
समय समय पर टेस्ट कराओ 
सबके  अपने ही नखरे हैं 
कभी पेट में गैस बन जाती है 
कभी घुटनों में पीड़ा सताती है 
बढ़ती हुई  उम्र को  कैसे gracefully accept करूं 
मुझे समझ  नहीं आती है 

कभी इसके दुखों को देखकर 
कभी उसकी  परेशानियों को सुनकर 
 मेरे  दिल  की  चाल बढ़ जाती है 
बढ़ती हुई  उम्र को  कैसे gracefully accept करूं 
मुझे समझ  नहीं आती है 

Sunday, 1 September 2013

गुमशुदा

जानम तुम हमें समझ ही न पाए
 नहीं तो यूं गुमशुदा न होते
जाते समय अलविदा कहते
और मुस्कराते हुए जाते 

शाम

शाम ढले आसमां में देखी  इक छटा
इक ओर डूबते सूरज की फैली लालिमा
दूजी ओर छायी गहरी काली  घटा

ये देख मन  में विचार  आया
 यही है संसार की भी सच्चाई

इक ओर सुख और खुशियाँ
दूजी ओर दुःख, तकलीफ और तन्हाई