Saturday 29 June 2013

ढलती उम्र

मैं बैठी घर के अंगना में
कुछ तनहा सी ,कुछ उदास सी
अचानक बिजली चमकने लगी
बरखा भी बरसने लगी
मैं उठ भीतर को चली
तभी पीछे से आवाज ये आई
कहाँ चली तुम कहाँ चली
आओ संग संग भीगें हम
बीते दिनों को याद करें
मैं उन्हें देख कर मुस्कायी
बोली, प्रिये  अब अपनी है उम्र ढली
ये मनचली अब नहीं भली
तभी मेघा  जोर गरजने लगे
बादल घनघोर बरसने लगे
ये जल्दी से  भीतर आये
हम खूब हँसे और खिलखिलाए .

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