Saturday 21 July 2018

दोस्त

 देर रात, अधखुली आँखे
चारों ओर पसरी तन्हाई
तभी दिल के इक  कोने से
बुझी हुई राख  के ढेर से
 वर्षों बाद
खट्टी मीठी  यादों की
इक चिंगारी सुलग आयी
कैसे पुकारूँ अब उसे
चलो दोस्त ही कह देती हूँ
चली गयी थी बिना कुछ बताये
फिर दोबारा नजर भी तो न आयी
अनबन हुई थी हम दोनों में
मैं उस से चिढ़ सी गयी थी
अब याद नहीं, क्या बात थी
चटोरी हूँ ना
इस लिए याद है मुझे
मेथी और बेसन की भाजी
टिफिन में ख़ास मेरे लिए थी लाती
रिक्शे पर मैं, साईकिल पर वो
साथ साथ कॉलेज जाना
उसका रास्ते भर बतियाना
नहीं जानती अब कहाँ होगी वो
पूछने थे उससे
अनगिनत अनबूझे सवाल
जिन्हे मैं सुलझा नहीं पायी
रोई और बहुत पछतायी
अब,अब और मैं उलझना नहीं चाहती
ऐ यादों, जाओ दफ़न हो जाओ
दिल के उसी कोने में
बुझी राख के ढेर के नीचे
हमेशा, हमेशा के लिए  

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